सरकार के इस फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट पहुंचा बांके बिहारी मंदिर न्यास,
लगाए गंभीर आरोप
1 months ago
Written By: आदित्य कुमार वर्मा
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा हाल ही में जारी ‘श्री बांके बिहारी जी मंदिर न्यास अध्यादेश 2025’ अब सुप्रीम कोर्ट की दहलीज पर पहुंच चुका है। यह मामला सिर्फ एक मंदिर के प्रबंधन का नहीं, बल्कि भारत में धार्मिक संस्थानों की स्वतंत्रता बनाम सरकारी हस्तक्षेप का संवैधानिक सवाल बन गया है।
क्या है मूल विवाद ?
मथुरा स्थित विश्वप्रसिद्ध श्री बांके बिहारी मंदिर को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार ने एक अध्यादेश जारी किया, जिसके तहत मंदिर के प्रशासनिक कार्यों को एक 11 सदस्यीय न्यास के अधीन करने का प्रस्ताव रखा गया। इस न्यास में अधिकतम 7 पदेन सदस्य होंगे और सभी सदस्य सनातन धर्म के अनुयायी होने अनिवार्य हैं। सरकार का तर्क है कि यह व्यवस्था मंदिर की व्यवस्थाओं को अधिक पारदर्शी और अनुशासित बनाएगी। हालाँकि, मंदिर की प्रबंधन समिति और श्रद्धालुओं ने इस अध्यादेश को "सरकार द्वारा मंदिर की संपत्ति और धार्मिक स्वायत्तता पर कब्जा करने की साजिश" बताया है।
सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ?
याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ ने यूपी सरकार के अध्यादेश को चुनौती देने वाली याचिका को स्वीकार किया और पूछा कि देश भर में कितने मंदिर ऐसे हैं जिनका प्रबंधन सरकारों ने कानून के तहत अपने अधीन कर लिया है।
मंदिर प्रबंधन की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कोर्ट को बताया कि बांके बिहारी मंदिर एक निजी ट्रस्ट द्वारा चलाया जाता है, जिसके पास 400 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति है। न तो मंदिर में कोई भ्रष्टाचार का मामला है, न ही श्रद्धालुओं की कोई शिकायत – फिर भी राज्य सरकार इस संपत्ति और प्रशासन पर सीधा नियंत्रण चाहती है।
सिब्बल ने कहा, “राज्य सरकार किसी प्रकार की अनियमितता का प्रमाण दिए बिना इस पवित्र संस्थान के प्रशासन में घुसपैठ कर रही है। यह धार्मिक स्वतंत्रता और संविधान के अनुच्छेद 26 का उल्लंघन है।”
कोर्ट का सवाल – हाई कोर्ट क्यों नहीं?
पीठ ने याचिकाकर्ता से सवाल किया कि यह मामला पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट क्यों नहीं ले जाया गया। इस पर सिब्बल ने बताया कि मंदिर से जुड़ा एक और मामला पहले से ही सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य बेंच में लिस्टेड है और यह अध्यादेश उससे जुड़ा संवैधानिक पहलू है, इसलिए दोनों मामलों को एक ही पीठ में सूचीबद्ध किया जाना चाहिए।
श्रद्धालु ने उठाई मंदिर कोष के इस्तेमाल पर आपत्ति
मंदिर भक्त देवेंद्र गोस्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में एक अलग आवेदन दायर कर 15 मई 2025 को आए उस आदेश को वापस लेने की मांग की, जिसमें राज्य सरकार को कॉरिडोर पुनर्विकास परियोजना के लिए मंदिर कोष का उपयोग करने की अनुमति दी गई थी। गोस्वामी का कहना है कि यह आदेश मंदिर प्रशासन को सुने बिना दिया गया और इससे मंदिर की स्वायत्तता को खतरा है। उन्होंने कोर्ट से अपील की कि मंदिर की संपत्ति को सरकार के कब्जे में जाने से रोका जाए।
इलाहाबाद हाई कोर्ट के पुराने आदेश की अनदेखी
याचिका में यह भी बताया गया कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 8 नवंबर 2023 को अपने आदेश में मंदिर की 5 एकड़ जमीन के अधिग्रहण की अनुमति देने से मना कर दिया था। वह आदेश मंदिर की संपत्ति की रक्षा के पक्ष में था। लेकिन राज्य सरकार ने उस आदेश के खिलाफ कोई अपील नहीं की और अब अचानक नया अध्यादेश लाकर मंदिर प्रशासन को अपने अधीन करने की कोशिश कर रही है।
देशभर में मंदिर प्रबंधन कानूनों पर बहस तेज
सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान विशेष रूप से तमिलनाडु मॉडल का जिक्र किया, जहां राज्य सरकार मंदिरों का प्रबंधन अपने हाथों में लेती है। अब अदालत ने मंदिर प्रबंधन समिति से यह रिपोर्ट देने को कहा है कि देश में कितने मंदिरों का प्रबंधन कानूनों के जरिए सरकारों ने अधिग्रहीत किया है। यह आदेश इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारत में धार्मिक संस्थानों की स्वायत्तता और उनके संसाधनों की रक्षा से जुड़ा एक बड़ा सवाल है।
क्या है अगला कदम?
सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की अगली सुनवाई 30 जुलाई 2025 को होगी। तब यह तय होगा कि उत्तर प्रदेश सरकार का अध्यादेश संवैधानिक है या नहीं। यदि अदालत ने इसे असंवैधानिक माना, तो यह निर्णय देशभर के अन्य धार्मिक संस्थानों के लिए नजीर बन सकता है।