हिंदी में पक्ष रखने पर ADM को चीफ जस्टिस ने फटकारा…
कोर्ट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचे अधिकारी
1 months ago
Written By: आदित्य कुमार वर्मा
भारत की न्यायपालिका और प्रशासनिक ढांचे में भाषा को लेकर एक बार फिर से बहस तेज़ हो गई है। उत्तराखंड हाईकोर्ट के एक आदेश और उस पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाई गई रोक ने इस बहस को एक संवैधानिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य दे दिया है। ये मामला एक अधिकारी द्वारा हिंदी में अपना पक्ष रखने को लेकर है, जिस पर हाईकोर्ट की नाराज़गी और सुप्रीम कोर्ट की राहत दोनों ही सामने आई है।
हिंदी में बात करना, अपराध नहीं
घटना का सार यह है कि पंचायत चुनाव से जुड़े एक मामले में एडीएम विवेक राय उत्तराखंड हाईकोर्ट में पेश हुए और उन्होंने हिंदी में अपना पक्ष रखना शुरू किया। इस पर हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस ने न केवल नाराज़गी जताई, बल्कि राज्य निर्वाचन आयुक्त को यह निर्देश दिया कि इस अधिकारी की अंग्रेज़ी समझने की क्षमता की जांच की जाए और यह परखा जाए कि वह अपने वर्तमान दायित्वों को निभाने में सक्षम है या नहीं। यह आदेश न केवल एक प्रशासनिक अधिकारी की गरिमा को ठेस पहुंचाने वाला था, बल्कि भारतीय संविधान की मूल भावना के भी प्रतिकूल था।
सुप्रीम कोर्ट ने खींची सीमाएं
उत्तराखंड के अधिकारी इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुँचे और वहां उन्हें राहत मिली। भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगाते हुए यह स्पष्ट कर दिया कि अंग्रेज़ी का प्रयोग करना कोई योग्यता का सार्वभौमिक मापदंड नहीं है। विशेषकर तब, जब कोई अधिकारी देश की राजभाषा हिंदी में बात कर रहा हो और वह भाषा राज्य की प्रशासनिक भाषा भी हो।
क्या कहता है संविधान ?
संविधान के अनुच्छेद 343 के तहत हिंदी भारत की राजभाषा है और अनुच्छेद 348 के तहत उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट में कार्यवाही अंग्रेज़ी में होती है, जब तक कि राष्ट्रपति अन्यथा आदेश न दें। वहीं अनुच्छेद 14 समानता का अधिकार देता है भाषा के आधार पर भेदभाव करना इस अनुच्छेद के भी खिलाफ है। उत्तराखंड जैसे हिंदी भाषी राज्य में, एक अधिकारी यदि हिंदी में अपनी बात रखता है तो वह न केवल संवैधानिक रूप से पूरी तरह वैध है, बल्कि प्रशासनिक दृष्टि से भी व्यावहारिक और लोकहितकारी है।
भाषा बनाम कार्यकुशलता
सवाल यह नहीं है कि अधिकारी को अंग्रेज़ी आती है या नहीं, सवाल यह है कि वह अपने दायित्वों को कितनी निष्ठा और दक्षता से निभा रहा है। भारत जैसे बहुभाषी लोकतंत्र में, भाषा कभी भी योग्यता का अंतिम पैमाना नहीं हो सकती। अंग्रेज़ी का ज्ञान उपयोगी हो सकता है, लेकिन उसे अनिवार्यता के तौर पर थोपना न तो संविधान की मंशा है और न ही यह सामाजिक न्याय के अनुरूप है।
विशेषज्ञों की राय
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता अश्विनी कुमार दुबे कहते हैं कि अगर उत्तराखंड में तैनात कोई अफसर हिंदी नहीं जानता तो सवाल उठ सकता है, लेकिन अगर कोई हिंदी में बात करता है तो उसे दंडित करना असंवैधानिक है। भारत में भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। यही बात सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा आदेश में भी झलकती है, जिसने यह स्पष्ट कर दिया कि भाषा कोई अपराध नहीं है।