भारत में हर छः माह में आत्महत्या कर रहा एक पादरी,
पांच साल में तेरह मौतों क क्या है वजह !
2 days ago
Written By: आदित्य कुमार वर्मा
देशभर में फैले हजारों चर्च और उनमें सेवा दे रहे पादरियों की भूमिका समाज के लिए हमेशा से ही प्रेरणास्रोत रही है। धार्मिक अनुष्ठानों का संचालन हो या सामाजिक सेवा पादरी हर मोर्चे पर सक्रिय रहते हैं। मगर पिछले कुछ वर्षों से भारत में पादरियों को लेकर एक चिंताजनक सिलसिला देखने को मिल रहा है: आत्महत्या। अब तक 13 से अधिक पादरियों द्वारा खुदकुशी की घटनाएं सामने आ चुकी हैं और ये आंकड़े हर छह महीने में एक जान जाने की कहानी कह रहे हैं।
आदर्श की छाया में घुटता जीवन
हर साल 4 अगस्त को चर्च 'पल्ली पुरोहितों के संरक्षक संत' जॉन वियान्ने की जयंती मनाता है। ये वही संत हैं जिन्हें फ्रांसीसी "क्यूरे डी'आर्स" के नाम से जाना जाता है और जिनकी तपस्वी जीवनशैली को आज भी चर्च में आदर्श माना जाता है। कम नींद, सीमित भोजन और सैकड़ों घंटे की प्रार्थना के प्रतीक ये संत आज भी पादरियों के कमरे और दीवारों पर श्रद्धा से टंगे रहते हैं।
लेकिन यही आदर्श आज कई पादरियों के लिए बोझ बन गया है। आत्म-त्याग, मौन पीड़ा और व्यक्तिगत इच्छाओं के दमन की मांग करने वाली ये तपस्या अब पादरियों की मानसिक सेहत पर भारी पड़ रही है।
आत्महत्याओं के पीछे मानसिक पीड़ा
बीते पांच वर्षों में आत्महत्या करने वाले पादरियों की उम्र 30 से 50 वर्ष के बीच रही है। इन पादरियों ने अपने अंतिम दिनों में चर्च प्रशासन से जुड़े दबाव, अकेलेपन और मानसिक संघर्षों की ओर इशारा किया था। लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि चर्च व्यवस्था अक्सर पीड़ा को एक 'आध्यात्मिक तपस्या' मानकर नज़रअंदाज़ करती रही है। पादरियों को आज भी एक आदर्श इंसान की तरह जीने की उम्मीद की जाती है, बिना थके, बिना टूटे, हर समय उपलब्ध और संतुलित। मगर जब वे थकते हैं, तो मदद के बजाय उन्हें और अधिक प्रार्थना करने और और ज्यादा उपवास रखने की सलाह दी जाती है।
संसाधनों की कमी और बढ़ता अकेलापन
चर्च में सेवा दे रहे अधिकांश पादरी सीमित संसाधनों और अकेलेपन में जीवन बिताते हैं। डिजिटल निगरानी के इस दौर में उनकी हर गतिविधि पर नजर रखी जाती है, जिससे वे और भी अधिक मानसिक दबाव में आ जाते हैं। चर्चों में मानसिक स्वास्थ्य सहायता या तो सीमित है या न के बराबर। ऐसे में जब वे किसी मानसिक संकट से गुजरते हैं, तो उनके पास सहायता मांगने का कोई सुरक्षित और भरोसेमंद जरिया नहीं होता। बिशप या उच्च अधिकारी अक्सर ऐसा माहौल बना देते हैं जहां अपनी कमजोरी जाहिर करना एक अपराध समझा जाता है। नतीजा एक शांत, जिम्मेदार और 'आदर्श' दिखने वाले पादरी की आत्महत्या की खबर हर छह महीने में सबको झकझोर जाती है।
अब सवाल उठाना ज़रूरी
पादरियों की आत्महत्या की इन घटनाओं ने यह साफ कर दिया है कि अब मौन नहीं, संवाद की ज़रूरत है। तपस्या और सेवा के नाम पर अगर कोई व्यवस्था लगातार लोगों को मानसिक पीड़ा दे रही है, तो उसका पुनर्मूल्यांकन आवश्यक है। आस्था की सेवा करने वाले ये पादरी क्या वाकई खुद की सेवा पा रहे हैं? या फिर संत बनने की दौड़ में वे अपने ही जीवन को धीरे-धीरे खत्म कर रहे हैं? समाज और चर्च दोनों को इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना होगा, इससे पहले कि अगली खबर किसी और पादरी के आत्महत्या की हो।