लखनऊ के बाज़ारों में बिक रही मौत !
धन की चाह में तंत्र मंत्र ने खोली इंसानियत की पोल
7 days ago Written By: News Desk
दिवाली का त्योहार आते ही जब हर घर में दीप जलते हैं, मिठाइयों की खुशबू फैलती है और आकाश में रोशनी बिखरती है, तभी एक पुरानी अंधविश्वासी परंपरा फिर से सिर उठाने लगती है। धन और समृद्धि पाने की लालसा में कुछ लोग इस शुभ पर्व को उल्लू की बलि जैसी क्रूर कुप्रथा से कलंकित कर देते हैं। ये वही उल्लू है जिसे भारतीय संस्कृति में लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है, लेकिन तंत्र-मंत्र की आड़ में इसे बलि के नाम पर मौत दी जाती है।
रात के सन्नाटे में होती है सौदेबाज़ी
लखनऊ के प्रसिद्ध पशु-पक्षी बाजार चौक, नक्खास और नींबू पार्क दिवाली से पहले ही पक्षियों की चहचहाहट से भर जाते हैं। यहां सामान्य दिनों में उल्लू की कीमत महज 3 से 5 हजार रुपये होती है, लेकिन त्योहार की मांग बढ़ते ही ये आसमान छूने लगती है। सामान्य दिनों में कुछ हजार में बिकने वाला उल्लू, त्योहार के समय बीस हजार से लेकर एक लाख रुपये तक में बेचा जा रहा है। ये आंकड़े सिर्फ उल्लू तक सीमित नहीं हैं तोता, मुनिया, तीतर और बटेर जैसे अन्य प्रतिबंधित पक्षियों की भी कीमतें आसमान लगाती हैं।
प्रशासन की सख्ती, पर अंधविश्वास गहरा
वन विभाग और प्रशासन की टीमें इस समय पूरी तरह सतर्क हैं। बाजारों और हॉटस्पॉट इलाकों में औचक छापेमारी और रात्रि गश्त की जा रही है। अधिकारियों ने स्थानीय नेटवर्क को मजबूत कर उल्लू की अवैध बिक्री रोकने के निर्देश दिए हैं। फिर भी यह काला कारोबार छिपकर जारी है, क्योंकि अंधविश्वास की जड़ें कानून से गहरी और पुरानी हैं।
कानून सख्त, फिर भी जारी है कुप्रथा
वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत उल्लू जैसे पक्षियों का शिकार, खरीद-फरोख्त या बलि देना अपराध है। दोषी पाए जाने पर 6 महीने की जेल और भारी जुर्माना तक हो सकता है। इसके बावजूद हर साल यही कुप्रथा दोहराई जाती है, जो दर्शाती है कि लोग अब भी धन की चाह में विवेक खो चुके हैं।
प्रकृति का प्रहरी, लक्ष्मी का प्रतीक
उल्लू सिर्फ एक पक्षी नहीं, बल्कि प्रकृति का प्रहरी है। यह खेतों और घरों के आसपास चूहों की संख्या नियंत्रित कर पर्यावरण का संतुलन बनाए रखता है। भारत की संस्कृति में इसे मां लक्ष्मी का वाहन कहा गया है – यानी समृद्धि, ज्ञान और सौभाग्य का प्रतीक। फिर भी हर साल दिवाली की रात यही प्रतीक अंधविश्वास और क्रूरता का शिकार बन जाता है। एक एनजीओ कार्यकर्ता ने कहा, 'शिक्षा और जागरूकता अभियान चलाकर ही इस कुप्रथा को जड़ से उखाड़ा जा सकता है। दिवाली धन की नहीं, ज्ञान की रोशनी का त्योहार है।'